काश भू कानून पर सीएम धामी की तरह 2007 में ही पूर्व नेताओं ने दिखाया होता साहस, पहले ही जमीनें होती जब्त, तो आज पहाड़ों की जमीनें न होती खुर्दबुर्द, अब पूरी तरह खत्म हो 250 वर्ग मीटर जमीन लेने का नियम, निकायों में भी जमीन खरीद के सख्त हों नियम

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देहरादून।

शुक्रवार को सीएम पुष्कर सिंह धामी ने सचिवालय स्थित मीडिया सेंटर में ये ऐलान किया कि मजबूत भू कानून बनाया जाएगा, जब तक नया भू कानून बनता है, तब तक पुराने भू कानून को ही सही तरीके से लागू कराया जाएगा। दूसरे प्रदेश के जिन लोगों ने भी उत्तराखंड में निकाय सीमा से बाहर 250 वर्ग मीटर से अधिक जमीनें खरीदी हैं, उन्हें सरकार जब्त करेगी। उत्तराखंड के मौजूदा हालात में सीएम धामी की ये घोषणा अधिक महत्वपूर्ण हो गई है। कुछ लोगों का कहना है कि सरकार ने ऐसा मूल निवास भू कानून आंदोलन के दबाव में किया है। यदि ऐसा किया भी है, तो क्या गलत किया। ऐसे दबाव तो पूर्व की सरकारों पर भी खूब बने, लेकिन तब किसी ने उस दबाव को दूर करने को इस तरह जमीनें जब्त करने का ऐलान करने साहस क्यों नहीं दिखाया। यदि पूर्व के मुख्यमंत्रियों ने नियम विरुद्ध खरीदी गई जमीनें जब्त करने का कहने भर का भी साहस दिखाया होता, तो आज इस तरह उत्तराखंड के पहाड़ के पहाड़ सामाजिक अराजकता को बढ़ावा देने वालों का निवाला न बन गए होते। इसीलिए इस मामले में सीएम धामी की तारीफ होनी ही चाहिए कि उन्होंने कम से कम बाहरी लोगों की नियम विरुद्ध खरीदी गई जमीनों को जब्त करने का कहने का साहस दिखाया। इससे कम से कम अब जो लोग पहाड़ की जमीनों की ओर अपनी गिद्ध दृष्टि लगाए हुए हैं, उनमें ये खौफ तो बैठेगा कि उनकी जमीनें सरकार जब्त कर सकती है। सीएम के ऐलान के बाद अब खासतौर पर टिहरी, उत्तरकाशी, पौड़ी, देहरादून, अल्मोड़ा और नैनीताल के डीएम की भूमिका बेहद अहम हो जाती है। वो तत्काल तथ्य छुपा कर खरीदी गई जमीनों को जब्त करने का अभियान चलाएं। इससे पहाड़ की ओर बढ़ते कदमों पर विराम लगाया जा सकेगा।
उत्तराखंड में 24 साल से सख्त भू कानून बनाए जाने की मांग मूल निवासी करते आ रहे हैं। कई अलग अलग शक्लों में मजबूत भू कानून और मूल निवास को लेकर मुहिम चलती आ रही है। इन मुहिम के दबाव में समय समय पर सरकारें दिखाने भर को कानून में आमूलचूल बदलाव करती रहीं हैं। भुवन चंद्र खंडूडी सरकार ने जब एनडी तिवारी सरकार के बाहरी लोगों के निकाय सीमा से बाहर 500 वर्ग मीटर तक भूमि खरीद के नियम को 250 वर्ग मीटर तक सीमित कर दिया था, तो इसे खंडूडी का मजबूत भू कानून बताया गया। जबकि उसी समय यदि सरकार ये भी ऐलान कर देती कि जिन लोगों ने भी 500 वर्ग मीटर तक तय भूमि से अधिक जमीनें अभी तक खरीदी हैं, तो वो सरकार में जब्त होगी और जमीनें सरकार में निहित किए जाने की कार्रवाई की जाती, तो वो अधिक असरदार रहता। सरकार 500 वर्ग मीटर जमीन के नियम को 250 वर्ग मीटर तक सीमित कर सो गई। इस नींद के कारण बाहर वालों ने कानून में छेद तलाशते हुए पति, पत्नी, बच्चों, दादा, दादी के नाम पर अलग अलग कई 250 वर्ग मीटर जमीनें अपने नाम करा ली।
इस मामले में कांग्रेस का कहना है कि तत्काल एनडी तिवारी सरकार के बनाए कानून को ही लागू किया जाए। बाद में हुए संशोधनों को समाप्त किया जाए। तो इसका क्या ये अर्थ है कि कांग्रेस फिर से निकाय सीमा से बाहर दूसरे राज्य के लोगों को 500 वर्ग मीटर तक जमीन खरीदने की मंजूरी देने का पुराना नियम बहाल करना चाहती है। जबकि मौजूदा समय में असल जरूरत निकाय सीमा से बाहर 250 वर्ग मीटर तक जमीन खरीद के नियम को भी पूरी तरह समाप्त करने की है। क्योंकि निकाय सीमा से बाहर दूसरे प्रदेश के लोगों को 250 वर्ग मीटर कृषि भूमि खरीदने की मंजूरी देने का कोई तुक नहीं है। कोई 250 वर्ग मीटर जमीन पर क्या खेती करेगा। क्योंकि जमीन खरीद की मंजूरी चाहे डीएम से लेनी हो या शासन से, इस लॉबी के हाथ इतने मजबूत हैं कि 24 घंटे में डीएम से लेकर सचिव राजस्व की मंजूरी ले ली जाती है। इसीलिए न सिर्फ ग्रामीण क्षेत्र में 250 वर्ग मीटर तक जमीन खरीदने के नियम को ही पूरी तरह समाप्त करना चाहिए, बल्कि निकाय सीमाओं के भीतर जमीन खरीद के मानक और सख्त करने चाहिए। उद्योग, होटल, स्कूल, कालेज, अस्पताल को छोड़ बाकि 100, 200 वर्ग मीटर जमीन खरीद की मंजूरी निकाय सीमा में भी पूरी तरह समाप्त की जाए। भले ही इसके लिए जेडएलआर एक्ट में बदलाव ही क्यों न करना पड़े।

सिर्फ जमीन खरीद तक सीमित नहीं है खेल
ये खेल अब सिर्फ जमीन खरीद तक सीमित नहीं रह गया है। आपके हाथ से सिर्फ आपकी जमीन ही नहीं जा रही है, बल्कि आपकी जमीन के साथ साथ बिजली, पानी, सड़क से जुड़े बड़े ठेके भी जा रहे हैं। जब यहां के नेता स्थानीय ठेकेदारों की पैरवी को आगे आते हैं, वो वही निशाने पर ले लिए जाते हैं। ये खेल यही तक सीमित नहीं रहता, बल्कि आप हाथों में बढ़ती मीडिया आईडी की भीड़ पर भी जरा गंभीरता से गौर फरमाएं। फिर इस भीड़ के जरिए गढ़े जाने वाले नैरेटिव को समझें। कैसे एक सरकार यदि आपके मनमाफिक नहीं है, तो कैसे उसकी घेरेबंदी करनी है। कैसे अपने पसंदीदा नेताजी की गोदी में बैठ कर दूसरे वाले की मां बहन करनी है। उस खेल को भी समझें, लेकिन इस खेल को हमें आपको समझने से पहले, यहां के नेताओं को समझना होगा कि वो इस फर्जी नैरेटिव गढ़ने वाले गैंग से न सिर्फ खुद को और बल्कि अपने राज्य को भी बचाएं। यही वो गैंग है, जो हल्ला मचाता है कि अब तो सरकार गई, गई और गई। ये हल्ला पिछले 10 सालों में कुछ ज्यादा ही बढ़ा है। एनडी तिवारी के दौर में ये हल्ला राजनीतिक हलकों में ज्यादा मचता था। 2007 से मौजूदा समय के बीच ये हल्ला नेताओं, खबरनवीसों के साथ ही नौकरशाही के उपेक्षित तबके के कारण तेजी के साथ बढ़ता ही चला गया। जब जिसने जाना होगा वो जाएगा, जब जिसका राजयोग प्रबल होगा वो आएगा। लेकिन सिर्फ निजी स्वार्थों के लिए इस राज्य को अस्थिरता में धकेलने का प्रयास करने वालों से सभी को सतर्क रहना होगा। ये राज्य किसी की चरागाह न बने, इसके लिए मजबूत भू कानून और मूल निवास बेहद जरूरी है।

निकायों का विस्तार भी है इसी खेल का हिस्सा
राज्य में पिछले एक दशक में निकायों का भी तेजी से विस्तार हुआ। जहां निकायों के विस्तार की कोई जरूरत भी नहीं थी, वहां भी निकायों की सीमाएं बढ़ती चली गईं। निकायों का ये विस्तार भी जमीनों के इसी खेल का बेहद अहम हिस्सा रहा। एक ओर भू कानून को कमजोर करने को नियम, कानूनों में बदलाव पर बदलाव होते चले गए। वहीं निकायों की सीमाओें को इस कदर बढ़ा दिया गया कि भू कानून ही दंतहीन साबित हो जाए। चूंकि निकाय सीमा में जमीन खरीद की कोई पाबंदी नहीं है, इसीलिए गांवों को ही समाप्त कर दिया गया। आप देखिए कि देहरादून में ही आज कहां ग्रामीण क्षेत्र रह गया है। बालावाला, शमशेरगढ़, नथुवावाला, मोथरोवाला, आरकेडिया तक सब नगर निगम हो चुका है। जहां ये सीमाएं समाप्त होती हैं, उसके बाद परवादून में डोईवाला नगर पालिका और उसके बाद ऋषिकेश नगर निगम और पछवादून में सेलाकुईं, हर्बटपुर और विकासनगर नगर निकाय शुरू हो जाते हैं। ऐसे में अब आप देहरादून में कहीं भी जमीन खरीद लें, वहां आपको कोई परेशानी नहीं होगी।

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