त्रिवेंद्र भी नहीं, तो आखिर कैसा सीएम चाहिए इस राज्य को, देखिए कैसे रचा गया आज तक के सभी सीएम के खिलाफ कुचक्र
देहरादून।
उत्तराखंड राज्य में हर सीएम और जिले में डीएम के कुर्सी पर बैठते ही उसके जाने की चर्चा शुरू हो जाती है। अस्थिरता फैलाने वाला एक खास गैंग पहले ही दिन से ऐसा माहौल तैयार करने में जुट जाता है। ये सवाल आज तक अनसुलझा ही है कि आखिर इस राज्य को कैसा सीएम चाहिए। अस्थिरता फैलाने वालों के सबसे पहले निशाने पर आए पहले सीएम नित्यानंद स्वामी स्वामी। कभी उन्हें बाहरी कह कर माहौल खड़ा किया गया। तो किसी ने उनके आस पास के लोगों को लेकर उनके राजकाज पर सवाल उठाए। दूसरे सीएम भगत सिंह कोश्यारी को बहुत ज्यादा मौका नहीं मिल पाया और वो उनकी विदाई चुनाव में हुई पार्टी की हार के बाद स्वयं हो गई। लेकिन इसके बाद आए तमाम मुख्यमंत्रियों को समय मिला जरूर, लेकिन हर शख्स को यहां खारिज कर दिया गया। तो ऐसे में मौजूदा सीएम त्रिवेंद्र रावत कहां इस गैंग विशेष से बच सकते हैं। 18 मार्च 2017 से ही सीएम त्रिवेंद्र के कुर्सी पर बैठते ही पहले छह महीने और बाद में हर छह महीने में सरकार को अस्थिर करने का जो खेल शुरू हुआ है, वो बंद होने का नाम नहीं ले रहा है। विधायकों के अपने निहायत ही व्यक्तिगत कारणों की नाराजगी को सीएम से नाराजगी से बता कर अस्थिरता का माहौल खड़ा किया जा रहा है। सवाल फिर वही मौजूं हैं कि आखिर इस राज्य को कैसा सीएम चाहिए।
एनडी तिवारी(2002-07)
दिल्ली की राजनीति से एनडी तिवारी को उत्तराखंड भेजा गया। उनके कुर्सी संभालने के कुछ महीने बाद ही उनकी विदाई की चर्चाएं शुरू हुईं। जो लोग आज उनके विकास पुरुष होने और उन जैसा कोई नेता न होने की दुहाई दिए हुए हैं। उन्हीं एनडी तिवारी के समय उनके कामकाज को लेकर सवाल उठाए जाते थे। तिवारी जी कभी कभार ही सचिवालय और विधानसभा सत्र के दौरान भी नाम मात्र को ही पहुंचते थे। तब उनके सिर्फ सीएम आवास से काम को लेकर सवाल उठाए जाते थे। देर रात तक उनका सुंदर चेहरों के बीच ही अथक परिश्रम कर फाइलें निपटाने के भी लोग दूसरे ही मायने निकालते रहे। सीएम आवास में उमड़ी रहने वाली भीड़ को मच्छी बाजार तक का नाम दिया गया। आज जब मौजूदा सीएम के सचिवालय और आवास में यही भीड़ गायब है, तो ये भी लोगों को हजम नहीं हो रहा है। एनडी तिवारी ने चाय वाले, प्लंबर से लेकर प्रधानों की विज्ञप्ति लाने वाले छोटे छोटे कार्यकर्ताओं और कई अज्ञात सुंदर चेहरों तक को लाल बत्ती देकर राजनीति की मुख्य धारा में लाने का काम किया, वो भी लोगों को हजम नहीं हुआ। आज जब त्रिवेंद्र सरकार में सिर्फ सक्रिय, पार्टी और संघ से जुड़े पुराने लोगों को सीमित संख्या में दायित्व दिए जा रहे हैं, तो ये भी लोगों को हजम नहीं हो रहा है। तिवारी सरकार में निसंदेह अभूतपूर्व काम हुए और देहरादून में सेलाकुईं, हरिद्वार रोशनाबाद, रुद्रपुर, पंतनगर सिडकुल में तमाम बड़े उद्योग आए। हालांकि इसमें एक बड़ी भूमिका तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के विशेष औद्योगिक पैकेज की भी रही। हालांकि पीएम के इस योगदान को एक खास वर्ग याद रखना नहीं चाहता। इसके बाद भी ऐन चुनाव के समय तिवारी जी के इन तमाम कार्यों के बावजूद उन्हें 2007 के चुनावी रण से बाहर रखा गया। मसलन उन्हें भी खारिज कर दिया गया।
बीसी खंडूडी(2007-2009)
बिना विधायकों के समर्थन और नापसंद के बावजूद सीएम की कमान बीसी खंडूडी को मिली। अटल सरकार के स्वर्णिम चतुभुर्ज योजना के ध्वजवाहक रहे बीसी खंडूडी के सीएम बनने पर लगा शायद अब रामराज आ गया है। अस्थिरता फैलाने वाला गैंग शायद अब शांत बैठ जाएगा। लेकिन ऐसा हुआ नहीं। ऊपर से दिखने वाली उनकी सख्त मिजाज कार्यशैली को उनकी यूएसपी बताया जाने लगा। आज मौजूदा समय में सीएम त्रिवेंद्र की इसी सख्ती, अनुशासन को उनके विरोधी उनके खिलाफ सबसे बड़ा हथियार बनाए हुए हैं। सीएम खंडूडी के खिलाफ जब कुछ नहीं मिला, तो उनकी सरकार के सबसे ताकतवर शख्स उनके सचिव प्रभात कुमार सारंगी की अति सक्रियता, उनके दखल को ही उनके खिलाफ हथियार बना लिया गया। जो दखल सांरगी का खंडूडी शासनकाल में रहा, ऐसा दखल दोबारा किसी नौकरशाह का नहीं रहा। डीएम, एसएसपी तो दूर एसडीएम, तहसीलदार तक की तैनाती उनकी हरी झंडी के बिना नहीं होती है, ऐसा माहौल तैयार किया गया। खंडूडी शासन में 19 नवंबर 2008 को आए देहरादून शहर के मास्टर प्लान पर विरोधियों ने सवाल उठाए। कहीं बिल्डरों के लिए कृषि भूमि को आवासीय, तो कहीं अच्छी खासी कालोनियों को सरकारी, सार्वजनिक उपयोग, तो कहीं उद्यान दर्शा दिया गया। गांव के गांव को पार्क बता दिया गया। मास्टर प्लान में जो रायता उस दौर में फैला, वो उसे समेटने में आज तक सरकारों के पसीने छूटे हुए हैं। खंडूडी जी के इतने अनुशासन, सख्त प्रशासन के बाद उम्मीद थी कि जनता और उनके विरोधी उन्हें हाथों हाथ लेंगे और 2009 के लोकसभा चुनाव में पांचों सीटों पर भगवा लहराएगा। लेकिन ऐसा हुआ नहीं, अप्रत्याशित तरीके से पांचों सीटों कांग्रेस जीत बैठी। अल्मोड़ा लोकसभा सीट से लगातार हार का रिकॉर्ड बना चुके हरीश रावत तक का हरिद्वार में पुनर्वास हो गया, वो भी डेढ़ लाख के भारी बहुमत से। खंडूडी शासन को भी खारिज करते हुए उन्हें हटा दिया गया। 2011 में भले ही छह महीने के लिए उन्हें दोबारा सीएम बनाने और खंडूडी है जरूरी नारा देकर वापस लाने का प्रयास किया गया, लेकिन पार्टी को दोबारा सत्ता में लाना तो दूर वो अपनी सीट तक नहीं बचा पाए। मसलन उन्हें भी खारिज कर दिया गया। फिर असल सवाल वहीं खड़ा हो गया कि आखिर इस राज्य को कैसा सीएम चाहिए।
रमेश पोखरियाल निशंक(2009-2011)
राजनीतिक लिहाज से युवा, ऊर्जावान, कुशल वक्ता रमेश पोखरियाल निशंक सीएम बने, तो उम्मीद जगी कि अब इस राज्य को एक स्थिर सरकार और स्थिर सीएम मिल गया है। सीएम निशंक ने भी रात दिन काम किया। खंडूडी जी के सख्त मिजाज, पार्टी कार्यकर्ताओं, पदाधिकारियों से दूरी बना कर रखने के उलट सीएम निशंक लोगों के घर घर तक घुस गए। कार्यकर्ताओं के बच्चों के जन्मदिन, शादी ब्याह, गृह प्रवेश से लेकर तमाम सुख दुख में लालबत्ती लगी सीएम वाहनों के काफिले का शोर गली गली गूंजने लगा। तब इसी शोर और हेलीकॉप्टर के इस कदर इस्तेमाल पर सवाल उठाए गए। एकबार तो ऋषिकेश में हेलीकॉप्टर लैंड कराने को रातों रात बिजली का पोल तक शिफ्ट करना पड़ा। दोबारा सीएम सचिवालय ऑफिस और सीएम आवास लोगों की भीड़ से गुलजार हो उठे। ओएसडी, पीआरओ समेत तमाम अघोषित ओएसडी की फौज ने जनहित के कार्यों में ऐड़ी चोटी का जोर लगा दिया। सीएम ऑफिस के इन ओएसडी समेत तमाम दूसरे पदाधिकारियों में जनहित के कार्यों को लेकर आपस में इस कदर प्रतिस्पर्धा थी कि एक दूसरे के बीच आगे बढ़ने की मारकाट मची रहती थी। एकबार फिर कार्यकर्ताओं के लिए पुलिस थाने, चौकियों, महकमों में फोन घनघनाने लगे। सभी का उत्साह अपने चरम पर था। जो लोग आज सीएम ऑफिस, आवास में पसरे सन्नाटे पर सवाल उठा रहे हैं, तब यही लोग ऑफिस, आवास में उमड़ी इस भीड़ को मच्छी बाजार बताने से बाज नहीं आते थे। सीएम के प्रदेश भर में इतने दौरे बढ़े कि अस्थिरता फैलाने वालों ने कहना शुरू कर दिया कि वाहनों के इंतजाम का जिम्मा डीएम समेत अब सीएमओ तक को उठाना पड़ रहा है। फिर सीएमओ के स्तर से वाहनों का इंतजाम करने को लेकर सवाल उठाए जाने लगे और टैक्सी बिल के नाम पर ऐसा रायता फैला कि कई सीएमओ को अपने प्रमोशन, पेंशन तक के लाले पड़ गए। लपेटे में सचिवालय के बाबू तक आ गए। जो आज तक जूझ रहे हैं।
दिन रात की मेहनत के बावजूद सीएम निशंक का काव्य प्रेम, उनका रात के समय अपनी रचनाओं को समय देने का भी क्रम कभी नहीं टूटा। ये उनकी रचनात्मकता को दर्शाता है। उन्होंने राज्य के विकास को लेकर 56 जल विद्युत परियोजनाओं, ऋषिकेश में एक बीमार उद्योग को संकट से उबारने को बीएफआईआर के निर्देश पर उसे एक सुंदर स्टुर्जिया हाउसिंग बसाने, विश्वस्तरीय कुंभ, जिसे लेकर बाद में नोबल पुरस्कार देने की भी मांग हुई। अटल ग्राम और न जाने क्या क्या प्रयास नहीं किए। उनकी प्रचार क्षमता और जबरदस्त पीआर सिस्टम का ही नतीजा था जो केंद्र सरकार की 108 सेवा को लोग उत्तराखंड सरकार की ही योजना तक मानते हैं। इसके बावजूद इस राज्य की स्थिरता के दुश्मनों के ये सब भी हजम नहीं हुआ। हाइड्रो प्रोजेक्ट, स्टुर्जिया, कुंभ को लेकर ऐसा अनर्गल प्रचार का राग अलापा गया कि देहरादून से लेकर दिल्ली तक बैठे बड़े भगवाधारी नेता कांप उठे। जबकि पारदर्शिता को हमेशा सर्वोच्चता देने वाले सीएम निशंक ने पॉवर प्रोजेक्ट, स्टुर्जिया प्रकरण में मामला हाईकोर्ट तक पहुंचते ही एक झटके में उन्हें निरस्त करने में रत्ती भर देरी नहीं की। इसके बाद भी निशंक जैसे कुशल प्रशासक को भी अस्थिरता पैदा करने वाले इन मदारियों से चूकते हुए इस राज्य ने देखा।
विजय बहुगुणा(2012-2014)
उत्तराखंड आंदोलन के दौरान जेल में बंद हुए आंदोलनकारियों को न्याय दिलाने को मुंबई हाईकोर्ट में जज की नौकरी रातों रात छोड़ कर आने वाले विजय बहुगुणा को बहुत कम सियासी दौड़धूप करने के बाद आसानी से 2012 में सीएम की कुर्सी मिली। एक जज के रूप में उत्तराखंड को मिले सीएम से यही उम्मीद थी कि कम से कम अब तो कोई गड़बड़ नहीं होगी। उनके समय से सीएम आवास पर चुनिंदा लोगों की ही पैठ रही। फालतू की भीड़ भाड़ को वो पसंद भी नहीं करते थे। लेकिन जो चुनिंदा थे, वही भारी भीड़ पर भारी थे। सुबह सीएम आवास से सचिवालय, लंच के समय फिर आवास, लंच के बाद कुछ देर आराम, शाम को सिर्फ चुनिंदा बैठकें। लोगों को ये भी रास नहीं आया। कहा जाने लगा कि सीएम विकेंड पर तो दिल्ली उड़ जाते हैं। जबकि राजकाज संभालने और उत्तराखंड को विकास के पथ पर आगे ले जाने में उनके पुत्र साकेत बहुगुणा ने भी भरपूर साथ दिया। तत्कालीन एसएसपी केवल खुराना के साथ मिल कर देहरादून के ट्रैफिक प्लान समेत उन्होंने कई बड़े बड़े विकास कार्य अंजाम दिए। देहरादून का ट्रैफिक सुधारना भी उसमें एक बड़ा काम रहा। विरोधी इन विकास कार्यों में भी मीनमेख निकालने में जुट गए। सीएम बहुगुणा के खिलाफ जब कुछ नहीं मिला, तो साकेत पर ही सुपर सीएम का तमगा लगा कर फिर अस्थिरता की हवा बनाने की कोशिशें हुईं। 2013 की केदारनाथ आपदा के तत्काल बाद सीएम बहुगुणा दिल्ली मदद मांगने क्या गए, लोगों को ये भी पसंद नहीं आया। उन्होंने आपदाग्रस्त लोगों को मदद पहुंचाने को अथक प्रयास किए। लेकिन विरोधियों को ये भी नहीं भाया। किसी ने हवाई उड़ानों के खर्चे, तो किसी ने आपदा में हुए कामों को लेकर घेरना शुरू किया। स्कूटर में फ्यूल का प्रकरण तो इतना उछाला गया कि गाहे बेगाहे राष्ट्रीय स्तर के तमाम भाजपाई नेता आज भी मंचों पर इस बात का उल्लेख करने से खुद को रोक नहीं पाते। अस्थिरता फैलाने वालों ने फिर राग अलापा कि आपदा के समय सीएम उत्तरकाशी, रुद्रप्रयाग, चमोली, पिथौरागढ़ जाने की बजाय ज्यादा समय दिल्ली गुजार रहे हैं। इतना रायता फैलाया गया कि विजय बहुगुणा जैसे अनुभवी काबिल सीएम को भी रुखसत होना पड़ा। मसलन उन्हें भी खारिज कर दिया गया।
हरीश रावत(2014-17)
2002 में सीएम की कुर्सी तक तकरीबन करीब पहुंच चुके हरीश रावत को इस पर बैठने का मौका फरवरी 2014 में मिला। उन्होंने पूर्व सीएम से हट कर अपना ज्यादा समय केदारनाथ, पिथौरागढ़ आपदाग्रस्त क्षेत्रों समेत में बिताया। जिस केदारनाथ धाम के अगले कई सालों तक श्रद्धालुओं के लिए खुलने की उम्मीद नहीं थे, वहां यात्रा शुरू कराई। तत्कालीन नौकरशाह राकेश शर्मा के साथ मिल कर केदारनाथ को दोबारा संवारने में अथक प्रयास किए। हाड़ गलाने वाली ठंड में लोगों को काम करने को प्रोत्साहित किया। विरोधियों को ये भी हजम नहीं हुआ। इस पर भी सवाल उठाए गए। उनके सुबह गढ़वाल, दिन में कुमाऊं, शाम हरिद्वार और देर रात चलनी वाली बैठकें भी लोगों को हजम नहीं हुई। ये वही लोग हैं, जो आज सीएम त्रिवेंद्र के सीमित दौरों और सीमित बैठकों पर सवाल उठाते हैं। उनके समय भी सीएम आवास, सीएम सचिवालय में हमेशा नेताओं, कार्यकर्ताओं का हुजुम उमड़ा रहता था। जो लोग आज सीएम ऑफिस, आवास में पसरे रहने वाले सन्नाटे पर सवाल उठाते हैं, हरीश रावत के समय इन लोगों की नजर में यही भीड़ किरकिरी थी। यहां भी इस भीड़ को मच्छी बाजार कहने से नहीं चूकते थे। आज लोग कहते हैं कि सीएम त्रिवेंद्र के पास एक भी ऐसा ताकतवर और असरदार ऐसा ओएसडी, सलाहकार नहीं है, जिसके कहने भर से पहले ही काम हो जाएं। नौकरशाह एक टांग पर खड़े हो जाएं। तब हरीश रावत के सीएम रहते हुए सलाहकार रंजीत रावत, सहयोगी राजीव जैन समेत तमाम ओएसडी, सलाहकारों की अथक मेहनत और दबदबे पर सवाल उठाते थे। हरीश रावत के लोगों के बीच जाने, कहीं भी रुक कर गोलगप्पे, भुट्टा, चाट, गजक खाने, देररात सड़कों पर लोगों को कंबल बांटने के काम भी लोगों को पसंद नहीं आते थे। हमेशा पहाड़, पहाड़ी, पहाड़ी उत्पाद पर बात करने वाले हरीश रावत के पहाड़ को आगे बढ़ाने के उनके तमाम कार्यों को पब्लिसिटी स्टंट करार दिया जाता था। आज जब त्रिवेंद्र इन सब चीजों से दूर रहते हैं, तो इस पर भी सवाल उठाए जाते हैं। जनता के बीच रह कर, नियमित तौर पर पूरे प्रदेश में घूमकर, पहाड़ की बात कर, गैरसैंण को राजधानी बनाने की दिशा में अहम कदम उठा कर भी जनता हरीश रावत को दो विधानसभा चुनावों से हरा कर सत्ता से बाहर कर दिया। मसलन उन्हें भी खारिज कर दिया गया। सवाल फिर वहीं का वहीं था कि आखिरी राजनीतिक रूप से मंझे हुए हरीश रावत भी नहीं, तो आखिर कौन।
त्रिवेंद्र रावत(2017-22)
इन तमाम पूर्व सीएम से हट कर त्रिवेंद्र रावत ने काम संभाला। सबसे पहले जिस सीएम आवास में जाने की हिम्मत कोई नया सीएम नहीं कर पाया, उसी में गृह प्रवेश कर अंधविश्वास को मिटाया। सीएम आवास और सचिवालय से अनावश्यक भीड़ को समाप्त किया। भले ही इसके लिए कई अपने प्रिय, परिचितों की नाराजगी मोल ली हो। अब बिना किसी काम के आवास, ऑफिस में भीड़ नजर नहीं आती। इसे उनके विरोधी उनकी कम लोकप्रियता बता कर दुष्प्रचारित करते हैं। जबकि यही लोग पूर्व सीएम के यहां लगने वाली इसी भीड़ को मच्छी भीड़ करार देते रहे। आज ये भीड़ सचिवालय परिसर तक गायब है। अब अनुभागों और सचिव कार्यालयों में फाइल के पीछे भागते सफेदपोशों और लॉबिस्टों की भीड़ नजर नहीं आती। अनुभाग से लेकर सचिवालय के हर पटल पर कर्मचारी राहत में हैं। सीएम सचिवालय में आज एक भी ऐसा ओएसडी आपको नजर आता है, जिसके कहने भर से अफसर उसकी बात मान काम कर दे। पूर्व मुख्यमंत्रियों के समय जो जलवा जलाल आर्येंद्र शर्मा, पीके सारंगी, द्विवेदी, साकेत, रंजीर रावत, राजीव जैन, राकेश शर्मा का था, क्या आज वो बात धीरेंद्र, खुल्बे, उर्बा समेत किसी दूसरे में है। नौकरशाही में भले ही ओमप्रकाश, राधिका झा, केएस पंवार के असर की बात की जाती हो, लेकिन वो तेवर और असर यहां भी नजर नहीं आते। आज हर किसी ओएसडी, सलाहकार, नौकरशाह की एक सीमा है और एक दायरा। आज डीएम, एसएसपी, डीएफओ, सीएमओ नेताओं की पसंद से नहीं, बल्कि सिर्फ और सिर्फ सीएम की पसंद से चुने जाते हैं। आज बात बात पर डीएम, एसएसपी, एसडीएम, तहसीलदार, थाने चौकियों में लोगों का तबादला करवाने वाले अब बेअसर हैं। आज सी रविशंकर, वी षणमुगम, विजय जोगदंडे, रंजना, नीरज खैरवाल, स्वाति भदौरिया, नीतिन भदौरिया जैसे अफसरों को भी कलेक्टर बना दिया जाता है। ऐसा सामान्य परिस्थितियों में आप कल्पना कर सकते हैं। पहले जहां एक डीएम का कार्यकाल साल भर हो जाता था, तो उसे रिकॉर्ड मानते हुए उनकी विदाई की तैयारी हो जाती थी। आज डीएम को पूछना पड़ रहा है कि साहब हमें वापस बुलाना भूल तो नहीं गए।
जिस तबादला एक्ट को सख्त जनरल बीसी खंडूडी शत प्रतिशत लागू नहीं करा पाए, वो त्रिवेंद्र सरकार में लागू हुआ। इसके आने से तबादला उद्योग चलाने वाले बेरोजगार हैं। इसी बेरोजगारी से मीडिया के उन रसूखदार लोगों को भी जूझना पड़ रहा है, जिनकी एंट्री पिछली सरकारों में चौथे तल से लेकर सीएम आवास में बेडरूम तक थी। आज बेडरूम तो दूर वेटिंग रूम तक ये भीड़ नजर नहीं आती। आप उम्मीद कर सकते हैं कि हर सरकार में हमेशा चौथे तल पर रहने वाला मृत्युंजय मिश्रा जैसा शख्स आज जेल की सलाखों के पीछे हो। यूपी निर्माण निगम अपनी दुकान समेट रहा हो, ब्रिडकुल जैसी राज्य की कार्यदायी संस्था आगे बढ़ रही हो। जल निगम जैसे संस्थान को दिल्ली में उत्तराखंड निवास का 90 करोड़ का काम आवंटित हो। बड़े छोटे निर्माण कार्यों में रिवाइज इस्टीमेट के नाम पर दुकान चलाने वालों के शटर डाउन है। आज रिवाइज इस्टीमेट तो दूर तय लागत से भी कम में काम हो रहे हैं। डॉटकाली टनल, अजबपुर, मोहकमपुर फ्लाईओवर लागत से भी कम में तैयार हुए। देहरादून और हल्द्वानी के पेयजल संकट को दूर करने को जिस सौंग बांध और जमरानी बांध पर किसी सीएम ने हाथ डालने की हिम्मत न की हो, उस पर काम शुरू करा दिया हो। बल्कि सूर्यधार झील समेत राज्य में कई नई झीलों पर काम शुरू होने के साथ ही खत्म होने की कगार पर है। टिहरी में हर सरकार के गले की फांस बनने वाले डोबरा चांठी पुल का निर्माण पूरा हो चुका है। अटल आयुष्मान जैसी हेल्थ स्कीम को शुरू करा कर जनता को बड़ी राहत पहुंचाई गई। स्वास्थ्य सेक्टर में डॉक्टरों के खाली पदों को बड़ी संख्या में भरवाया। सहकारिता जैसे विभाग, जहां हमेशा घपले घोटाले के ही किस्से मीडिया की सुर्खियां बनते थे, आज वहां 3500 करोड़ की एनसीडीसी परियोजना शुरू कराई। अब दूसरे राज्य भी इसी मॉडल पर काम कर रहे हैं। देवस्थानम बोर्ड गठन जैसा साहसिक फैसला, जिसे लेने में दिग्गज एनडी तिवारी तक पीछे हट गए थे, उसे तमाम दबावों के बावजूद न सिर्फ लिया, बल्कि लागू कराया। इसके बाद भी अस्थिरता फैलाने वाले बाज नहीं आ रहे हैं। पूर्व मुख्यमंत्रियों की तरह इस बार भी सीएम की कुर्सी हिलाने को मदारी गैंग बेताब है। जबकि मार्च 2017 से लेकर आज तक हुए सभी छोटे बड़े चुनाव में भाजपा ने जीत दर्ज की। अभी तक के कार्यकाल में सरकार के ऊपर किसी घोटाले तक का दाग नहीं है। सरकार के स्तर पर कुछ कमियां भी हैं। लेकिन वो ऐसी हैं, जिसका नुकसान राज्य की बजाय सीएम को स्वयं व्यक्तिगत स्तर पर उठाना पड़ रहा है। उनके पास अपनी टीम में वो मजबूत चेहरे नहीं है, जैसे पुराने सीएम के पास रही। हालांकि जो चेहरे हैं, वो काबिल न सही, लेकिन उन पर दाग भी नहीं हैं। नौकरशाही के कुछ धड़े जरूर जरूरत से ज्यादा हावी है। लेकिन भ्रष्टाचार की हिम्मत उनकी भी नहीं है। फिर अंत में सवाल यही है कि अब त्रिवेंद्र भी नहीं, तो आखिर कैसा सीएम चाहिए इस राज्य को।